Wednesday, January 23, 2008

संत कबीर अमृत वाणी 02

श्री सद्गुरुवे नमः
मैं अपराधी जनम का नख शिख भरा विकार।
तुम दाता दुःख भंजना मेरी करो उबार॥
महानुभाव,
संध्या सुमरनी की ये पंक्तियाँ सन्त शिरोमणी कबीरदास जी की सबसे प्रभावशाली और मार्मिक पंक्तियों में से एक हैं ।
कबीर साहब निराकार ब्रम्ह की उपासना करते हुए कहते हुए अत्यन्त ही आर्त स्वर में मर्म की गहराइयों से उस परमसत्ता को पुकारते हैं । यह मनुष्य जन्म अनगिनत अपराधों से भरा हुआ है। ज़रा आप अपने मन में झंक कर तो देखिए कहीं किसी कोने में अपराधबोध दुबका हुआ तो नहीं बैठा है । हो सकता है न हो । अपराधबोध का न होना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है और यदि अपराधबोध है तो उसके उपचार या समाधान की आवश्यकता है ।
पुन्ः संत कबीर के शब्दों पर आइए॒
मैं अपराधी जनम का....कहने का क्या तात्प्र्य है? यहाँ कबीर साहब इस जीवन को पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम बता रहे हैं । आपने कभी यह कहावत सुनी होगी...जन्म,मृत्यु और विवाह ये तीनों प्रारब्ध के प्रतिफल हैं । तो प्रारब्ध क्या है? प्रारब्ध विस्तृत रूप में पूर्व जन्मों का संस्कार हैं ।मेरे मित्र यदि इसे संकुचित या छोटे रूप में देखें तो प्रारब्ध पूर्व कर्मों के फल का समूह है जो पूर्व जन्म को मानते हैं और जो पूर्व जन्म को नहीं मानते उनके लिए इसी जन्म में भूतकाल में किए कर्मों का समूह है ।
हमें इन पन्क्तियों के कहे जाने का अर्थ जानना आवश्यक है क्योंकि ये शब्द संध्या सुमरनी में हर रोज़ दुहराए जाते हैं । आज के इस वैज्ञानिक युग में प्रबुध्द वर्ग यह मान सकता है कि मैं अपराधी ...बार बार बोलने से इनका मनोवैज्ञानिक दुष्परिणाम तो उत्पन्न हो जाएगा ? परन्तु हमेम् और आरतियों में कुछ ऐसे ही भावों वाले शब्दों का अनवरत् प्रयोग चलते हुए मिल जाएंगे । इसका आशय यह हुआ कि सभी रचनाकार अपने आप को ईश्वर के समक्ष दीनता का बोध कराने के लिए इनका प्रयोग करते हैं ।हम उस परमसत्ता के आगे वास्तव में दीन हीन और दुर्बल ही हैं । यदि हम मन में ऎसा महसूस करते हैं तो ही उनकी कृपा का पात्र बन सकते हैं साथ ही अहंकार को त्यागने का भाव भी इन शब्दों में छुपा हुआ होता है ।
"नख शिख भरा विकार" कहने से अभिप्राय यह है कि हम भौतिक या मानसिक विकारों से भरे हुए हैं । काम,क्रोढ्,मद, लोभ,मोह, मत्सर रुपी मनोविकारों से भरे हुए हैंजो कि समय समय पर अपना दुश्प्रभाव दिखाते हैं । ये केवल दुष्परिणाम दिखाते हैं ऐसा नहींहै यदि इनका सही दिशा में चलायमान किया जाय तो असीम आनन्द का श्रोत बन जाते हैं।
यथा-काम केवल गृहस्थी में उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए उपयोग किया जाए तो असीम आनन्द का श्रोत है इसका असंयमित प्रयोग शारीरिक,मानसिक और नैतिक रुग्णता को जन्म देता है
यहाँ संयम की विशेषता को जानना ज्यादा लाभदायक है-"शक्ति के अपव्यय को रोकना ही संयम है।"
शक्ति यानि भारतीय दर्शन के अनुसार शक्ति के आठ स्तंभ हैं-1.स्वास्थ्य 2.विद्या 3.धन 4.व्यवस्था 5.संगठन 6.यश 7.शौर्य या पराक्रम 8.सत्य
इन आठों शक्ति के साधनों का संयमपूर्वक उपयोग करना चाहिए तभी इनका लाभ मिल सकता है दुरुपयोग होने पर हानि होना निश्चित है।मैं अगली क ड़ी में इनका विस्तृत वर्णन करुँगा जिसके अध्ययन से आपको निश्चित रूप से लाभ होगा ।
क्रोध-
क्रोध मानसिक कमजोरी का परिचायक है। इच्छा पूर्ति में अवरोध होने, इच्छा के विपरित कार्य होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। यह विवेक को नष्ट कर देता है,शरीर की बहुत सी ऊर्जा को भी नष्ट कर देता है। दुष्ट या दुष्टता के प्रति क्रोध शुभफलकारी माना गया है ।
मद-
घमंड,अहंकार हमारी उन्नति में बाधक है।जिस धन संपत्ति या गुण का अहंकार हम करते हैं वह धीरे धीरे हमारा साथ छोड़ने लगता है। शास्त्र में यहाँ तक कहा गया है कि ज्न्यान और भक्ति का अहंकार भी विपरित फल देनेवाला माना गया है। वास्तव में इस संसार में कुछ भी अहंकार करने योग्य नहीं है जैसे -धन ,सम्पत्ति,वैभव,सुन्द्रता,शारीरिक या आध्यात्मिक शक्ति सभी समय रूपी तलवर इन सबका नाश कर देता है।
मोह-
आसक्ति का ही दूसरा नाम मोह है । सन्तों ने संसार में रहते हुए सांसारिकता से निर्लिप्त् रहने का संदेश दिया है क्योंकि यह संसार अनित्य है और हम स्वयं मरणधर्मी हैं ।
इसलिए किसी के प्रति मोह करना या आसक्त रहना दुःख को आमंत्रित करना है। तो संसार में रहना कैसे है ठीक वैसे ही जैसे कमल कीचड़ के बीच् खिलता है परन्तु कीचड़ से निर्लिप्त रहता है । यहाँ 'प्रेम'मोह नहीं है, क्योंकि सांसारिक प्रेम ईश्वरीय प्रेम का सोपान बनता है।

मत्सर-
मत्सर या ईर्ष्या सर्वथा त्याज्य है । यह दूसरे की उपलब्धियों से अपनी तुलना करने पर उत्पन्न होता है। यह स्वयं का ही अधिक नुकशान करता है। यह हमारे मानसिकशक्ति और जीवनीशक्ति का नाश करता है।
पुनः सन्त् कबीर के संदेश पर विचार करते हैं कि हम इन मनोविकरों से भरे हुए हैंवे अपने दत अर्थात् सत्पुरुष स् कातर भाव से याचना करते हुए कहते हैं कि तुम ही मेरे दुःख का नाश करने वाले हो तुम्हारे बिना कौन मेरा उद्धार कर सकता है? सद्गुरु कबीर साहब उस निरंजन परमसत्ता से अपने आप को इन दोषों से दूर रखने की याचना कर रहे हैं।

1 comment:

36solutions said...

छत्‍तीसगढ में दामाखेडा में कबीर शक्ति केन्‍द्र है, छत्‍तीसगढ कबीर से ओतप्रोत है इस पर आपकी लेखनी का स्‍वागत है । संत कबीर पर लगभग 1200 पृष्‍टों का एक शोध ग्रंथ सापेक्ष के संपादक डॉ.महावीर अग्रवाल (0788 2210234)नें निकाला है यह ग्रंथ देश के अभी तक उपलब्‍ध कबीर साहित्‍य ग्रंथों में अनमोल है, कृपया इसका भी अध्‍ययन कर लेवें ताकि छत्‍तीसगढ में कबीर को बेहतर ढंग से प्रस्‍तुत किया जा सके ।