Thursday, February 14, 2008

साख

दिया जिन्दगी ने झटका
उठा कलम और बस्ता
निकल पड़ा आशंका से
किसी अनहोनी की
गूँजती रही बिटिया के ससुर के
शब्द कर्कश कानों में
पिघला सीसा ऊँडेलती रही
ढुंढ रही थी नज़र
उस काल्पनिक कटोरे को।
जिन्दगी भर की कमाई
भरभराकर छितरा गई
दो बूँद अश्रु के छलक आए
बेबशी के मोटी ऐनक के पीछे ।
करने लगे अट्टहास
ईमानदारी पर,मेहनत पर
एक् बिटिया को भी
सुखी न कर सका
क्या यही है?
क्या यही है जिन्दगी भर की साख।
काश!
कुछ पीला काला किया होता,
किसी के बच्चों का निवाला छिना होता
किसी की बेबशी को बनाकर ढाल
समेटता,बटोरता कुछ माल
नहीं झेलता दंश होने का कँगाल
कर सकता बिटिया को खुशहाल।
सहसा,अन्दर किसी कोने से आई आवाज
नहीं! नहीं हो सकता
बद्दुआ की कीमत पर किसी की,
बनाना अपनी साख।

Sunday, February 3, 2008

Where You Are?

Almighty calls to open tender eye
Lies in bosom deep me and thy;
He’s dwelling everywhere;
On air, water clear, pool and river;
Beholds with thousands of eyes,
Never differs from urban or country wise.
Same and loves all hearts
Made of us by virtue ere,
Lends the same all worlds there.
Me and you, you and me;
Made of his subtle skill and grace,
His love showers on lamb and fly
Poured in tender heart of me and thy.
O listen gentle voice by heart,
Don’t miss a chance to throw out dirt
Of violence, misery, usury and flirt.
We are the same for thine,
Where you’re, calling for love wine.
He calls you to open thy heart,
Will reach only on holy concert.

Saturday, February 2, 2008

कर्ज़ से मुक्ति

आज कर्ज़ का दूसरा अर्थ हो गया है मौत। हम आए दिन् अखबारों में पढ़ते हैं और दूरदर्शन में देखते रहते हैं कि लोग किसान ,मजदूर व अन्य लोग बड़ी संख्या में कर्ज़ के दबाव से छुटकारा पाने मौत को गले लगा लेते हैं। यह और गहरी पीड़ादायक तब बन जाती है जब आदमी सपरिवार आत्महत्या कर लेता है। 'कर्ज़' आज की बहुत भयानक समस्या बन गया है जो शासकीय अशासकीय संस्थानों की धन लोलुपता को व्यक्त करता है। अनेक वित्तीय संस्थानों ,बैंकों के द्वारा लोन,क्रेडिट कार्ड के द्वारा कर्ज़ दिया जा रहा है जो कि आवयकता रहने पर या अनावश्यक रूप से कर्ज़ लेने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है।

इस मंच से मैं उन समस्त पीड़ीत आत्माओं की पीड़ा को व्यक्त करने के साथ-साथ इस भयानक दोष से मुक्ति के उपाय सुझाने की चेष्टा करूँगा।

आवश्यकता-
व्यापार,व्यवसाय में उन्नति की संभावना से कर्ज़ लिया जाता है। परन्तु व्यापार में प्रतिद्वंद्विता के कारण,बाजारभाव गिरने के कारण,अपेक्षित प्रगति न होने के कारण लाभ के बजाय हानि हो जाती है। लिया गया कर्ज़ समय के साथ-साथ ब्याज के कारण बढ़ते जाता है। रुपए की क्रय क्षमता कम होने के कारण भी वास्तविक कर्ज़ बढ़ते जाता है।
कृषि हेतु जो कर्ज़ लिया जता है वह और अधिक खतरनाक है क्योंकि-1. इसकी ब्याज दर अन्य कर्ज़ से अधिक होती है। 2.कृषि उपज का मूल्य निर्धारण उत्पादक के हाथों में नहीं होता बल्कि मूल्य सरकारें तय करती हैं जो कि लागत की दृष्टिकोण से कम होता है। कृषि संसाधनों जैसे-पानी,खाद,कीटनाशक,महंगे बीज, मज़दूरी की दर,मशीनों का किराया सदैव बढ़ते रहता है। अधिक उत्पादन से कीमत का गिरना,कभी-कभी नकली खाद,बीज एवं दवाएं उपयोग करने से उत्पादन तो कम होता ही है बल्कि कर्ज़ अदायगी का समय अगले फसल तक के लिए टल जाता है ।
कर्ज़ लेने की आवश्यकता-कर्ज़ लेने का मनोवैज्ञानिक कारण अधिक लाभ कमाना,प्रतिद्वंदी से आगे बढ़ने की भावना, नए प्रयोग से लाभ कमाने की इच्छा,शानो शौकत से बच्चों का विवाह करने की इच्छा,लम्बी बीमारी का इलाज़ करने और महंगी उच्च शिक्षा आदि हैं।

कर्ज़ लेने का मूल कारण स्वयं के पास पर्याप्त पैसे न होना है। यह कई कारणों से हो सकता है जैसे-परिवार का बढ़ना,परिवार का ढाँचा और उसकी आवश्यकताएँ साल दर साल बढ़ती जाती हैं लेकिन मौज़ूदा आमदनी में उतना लचीलापन नहीं रहता। आमदनी की दर से व्यय की दर का आगे रहना। अनियमित व्यय या आकस्मिक व्यय जैसे- आकस्मिक यात्रा, आवश्यक यात्रा,स्वास्थ्य समस्या, चिकित्सा व्यय,अनावश्यक व्यय,व्यसन,सोसायटी मेन्टेनेन्श आदि कारणों से हमरे पास पर्याप्त पैसे नहीं बच पाते और कोई बड़ा खर्च आ जाने पर कर्ज़ या उधारी(जो कि बहुत कम मिलता है)का सहारा लेना पड़ता है। बाजार की मौज़ूदा प्रवृत्ति घर पहुँच् सेवा(कीमत+डिलीवरीचार्ज),किस्तों पर उपभोक्ता सामग्री मिल जाने से नियमित आमदनी का एक हिस्सा नियमित रूप से निकल जाता है।
कर्ज़ से कैसे बचें-
पास में पर्याप्त पैसे हो तो कर्ज़ कि आवश्यकता नहीं पड़ेगी । बीमारी में खर्च करने के बजाय बीमारी से सुरक्षा में खर्च कीजिए। अपनी धन संबंधि शिक्षा को बढ़ाईए क्योंकि इसकी कमी से ही आपकी आर्थिक स्थिति बिगड़ती है।
कुछ सरल उपाय ये हैं-
इनका ध्यान रखें-
"मितव्ययिता बचत की जननी है।" अर्थात् कम से कम व्यय करने की आदत से बचत करने की प्रवृत्ति बढ़ती है जो कि हमेशा फ़ायदेमंद होती है।
"बचत किया गया धन कमाए गए धन के बराबर होता है।
"गरीब नहीं होना चाहते तो गरीबों की तरह खर्च करना छोड़िए।"अर्थात् अमीर् बनना चाहते हैं तो अमीरों की तरह संतुलित खर्च करने की आदत डालें ताकि बचे हुए धन का अच्छा निवेश किया जा सके।
"अच्छा निवेश अमीरी का सुत्र है।"
बेबीलोन के सबसे अमीर आदमी का संदेश-"अपनी आमदनी (दैनिक,मासिक या साप्ताहिक) को दस भागों में बांटकर सबसे पहले एक भाग स्वयं के लिए,दो भाग वर्तमान तथा भविष्य के खर्चों या कर्ज़ उतारने के लिए तथा सात भाग परिवार के नियमित खर्च के लिए रखना चाहिए।"
पुनःस्वयं के लिए रखे एक भाग को किसी भी हालत में खर्च् न करें यह निवेश किया जानेवाला धन है। निवेश् के लाभांश को कभी खर्च् न करें बल्कि इसका पुनर्निवेश करें यही अमीरी का राज़ है।
बिना विशेषज्ञ की सलाह लिए निवेश् न करें।
बचाए गए दो भाग वर्तमान तथा भविष्य के खर्च या व्यय हैं इन्हें बचत मानने की गल्ती न करें। परिवार का दैनिक या मासिक खर्च सात भाग से अधिक न हो इसका हर संभव प्रयास करें;यदि ऐसा कर लेते हैं तो बाकि समस्यायें अपने आप दूर हो जाएंगी। रॉबर्ट टी.कियोसाकी के अनुसार-"लोगों की जिन्दगी हमेशा डर और लालच इन्हीं दो भावनाओं से चलती है। उन्हें अगर अधिक पैसा दे भी दें तो वे अपना खर्च बढ़ा लेंगे।"
स्टीले कहते हैं-“Economy in our affairs has the same effect upon our fortunes which good breeding has upon our conversation.”
“Shame of poverty makes one go everyday a step nearer to it; and fear of poverty stirs up one to make everyday some further progress from it.”
“Who believes in moderation of desires is the best of the world.”

यह सच है कि पुस्तक पढ़कर कोई अमीर नहीं बनता फिर भी ऐसी पुस्तकोंमें कुछ मौलिक ज्ञान रहता है जिनका उपयोग कर उस रास्ते में कुछ कदम जरूर चला जा सकता है ऐसी ही एक पुस्तक है 'बबीलोन का सबसे अमीर आदमी'जिसमें कर्ज़ से मुक्त होने का बहुत ही कारगर उपाय बताया गया है आपको जरूरत हो और मिले तो अवश्य पढ़िए।

Wednesday, January 30, 2008

संत कबीर अमृतवाणी 04

मैं भी भूखा न रहूँ,साधु न भूखा जाय॥
महानुभाव,
सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं कि हे परमपिता परमेश्वर मुझे कम से कम इतना तो जरुर देना जिससे कि मेरी अनिवार्य आवश्यकताओं कि पूर्ति हो सके, मैं साधु-संतों की सेवा कर सकूँ और अतिथियों का सत्कार कर सकूँ ।
यहाँ कबीर साहब ईश्वर से धन दौलत , सोने-चाँदी की कामना नहीं कर रहे हैं । प्रकृति का यह नियम तो आप जानतेहैं कि हमें उससे ज्यादा नहीं मिलता जितना कि हम कामना करते हैं और प्रयास करते हैं ।
वर्तमान संदर्भ में आप इस विचार का हँसी उड़ा सकते है कि जहाँ सर्वत्र धनवान बनने की होड़ मची हुई है तो यहाँ केवल अनिवार्य आवश्यकता पर ही बात खत्म हो रही है । ऐसा नहीं है यह जीवन की कठोरतम सच्चाई है कि ये आलीशान भवन,हीरे-मोतियों का ढेर यहीं रह जानेवाला है, कुछ भी साथ जाने वाला नही है ,अंत समय में कुछ भी काम आनेवाला नहीं है ।

यदि ऐसा है तो भौतिकवाद को समाप्त हो जाना चाहिए । मेरे भाई ऐसा नहीं है ,मैं पुनः निवेदन करना चाहूँगा कि कबीर दास जी केवल भोजन प्राप्त करने तक सीमित नहीं हैं , वे साधु संतों की सेवा करना चाहते हैं , दूसरी बात अतिथि सत्कार में कोई कमी नहीं करना चाहते । कहा गया है कि- साधु-संत की सेवा करने से सत्संग का लाभ मिलता है जो कि कठोर तपस्या के पुण्यलाभ से भी बढ़कर है ।

आप् सोच रहे होंगे कि कहाँ आज खुद का गुजारा चलाना मुश्किल है यहाँ साधु सेवा की बात कही जा रही है-ऐसा नही है-वर्तमान संदर्भ में साधु संत का अर्थ उन्नति का मार्ग बतानेवाला,भलाई का मार्ग बतानेवाला है ।यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब भी हमारे घर में संतों का आगमन हुआ है घर के वातावरण में सुखद बदलाव आया है । मैं मानता हूँ कि ऐसा आपके साथ भी हो सकता है ।

परिवार और बच्चों में अच्छे संस्कार् विकसित करने के लिए धार्मिक कार्यक्रमों में समय लगाना आवश्यक है । यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो ये और कहीं से मिलने वाला नहीं है । टी.वी.जैसे माध्यम अच्छे संस्कार की तुलना में बुरे संस्कार ही अधिक फैला रही हैं । सत्संग या धार्मिक कार्यक्रमों में सैकड़ों, हजारों लोगों की विचार तरंग वातावरण को अधिक प्रभावित करती है तथा यह अधिक लाभदायक है ।
"बच्चों को पैसे की नहीं आपके प्यार और समय की आवश्यकता है।"
आपका प्यार और उनके साथ बिताया गया समय धन की कमी महसूस नहीं होने देगा, उन्हें अच्छे ढंग से शिक्षित किया जा सकता है।
रॉबर्ट टी.कियोसाकी के अनुसार-"धन एक मानसिक स्थिति है । धन कमाना महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह महत्तवपूर्ण है कि धन कितने समय तक आपके पास रहता है ।"
"जब लोगों के पास ज्यादा पैसा आ जाता है तो वे सोचते हैं कि उनका आई.क्यू. बढ़ गया है । वे दंभी हो जाते हैं और मूर्खतापूर्ण कार्य करने लगते हैं ।"
"शिक्षा में किया गया निवेश सर्वश्रेष्ठ निवेशों में से एक है ।"
भारतीय दर्शन -
"दान करने से धन शुद्ध होता है ।"
"अतिथि जिसका अन्न ग्रहण करते हैं उनके दोष दूर हो जाते हैं ।"
पाश्चात्य साहित्यकार फ़्रान्सिस् बेकन(सोलहवीं सदी)
के अनुसार- “Of great riches there is no real use, except it be in the distribution; the rest is but conceit.”
“Seek not proud riches, such as thou mayest get justly, use soberly, distribute cheerfully, and leave contentedly.”
"मनुष्य अपने धन को अगली पीढ़ी के लिए या लोगों के लिए छोड़ जाता है । परन्तु यह उत्तम होगा कि वह दोनों में बराबर हो ।"
सुप्रसिद्ध वक्ता शिव खेड़ा का यह कथन ध्यान में रख्ने लायक है कि "हमें हर चीज़ कि कीमत चुकानी पड़ती है ।"
यदि हम अपने उत्तरदायित्व पूरा करते हैं तो उसकी कीमत चुकाकर अच्छे फल प्राप्त करते हैं या उससे भागते हैं तो भी उसका कीमत चुकाने के साथ-साथ बुरा फल पाने के लिए तैयार रहना चाहिए ।
अन्त में मैं कहना चाहूँगा कि धन कमाना आवश्यक है परन्तु धन के पीछे पूरा जीवन बिता देना ठीक नहीं है । हमें कुछ समय आत्मकल्याण के लिए बचाना आवश्यक है ।

Saturday, January 26, 2008

कबीर अमृत वाणी 03

सांई इतना दीजिए,जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ,साधु न भूखा जाय ॥
मेरे प्रिय आत्मश्रेष्ठ,
सर्वप्रथम मैं इस घोर भौतिकवादी युग में,अतिप्रगतिशील समाज में जहाँ लक्ष्मी की शक्ति का सर्वत्र जय-जयकार हो रही हो एक अक्खड़ और फक्खड़ सन्त कबीर दास जी की इन संतोषवादी वाणियों पर दृष्टिपात करने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ । साथ ही आपको धन्यवाद देना चाहूँगा कि आपने जाने अनजाने एक ऐसे विचार तरंग (ब्लाॅग)को छेड़ा है जिसकी मधुर तान आप्के घर -गृहस्थी के कुशल निर्वहन के लिए आप्कि सहभागिता सर्वसरल शब्दो में तरंगित करेगी ।
आइए,मैं आप तक तृतीय पुष्प की सुगंध से आपके घर आँगन को महकाने की चेष्टा करूँ -
सांई इतना दीजिए,जा में कुटुम समाय ।
प्रायः 450 वर्ष पूर्व कबीर दास जी का यह कथन उस काल की अल्पभौतिकता को रेखाँकित करता है । उस काल में वैसे भी सामाजिक व्यवहार, गृहस्थि की व्यवस्था, बच्चों के पालन पोषण में अधिक धन की आवश्यकता नहीं थी । फिर भी सन्त कबीर दास जी के ऐसे उपदेश का अर्थ दो तरह का निकल सकता है पहला यह कि-
उस समय जीवन निर्वहन के साधन बड़ी मुश्किल से जुटते थे । शासक और शोषितों में भारी वर्गान्तर था । शोषित और गरीब लोगों की बड़ाई दुर्दशा थी;लोगों को दो वक्त की रोटी के लिए बहुत मशक्कत करना पड़ता था । ऐसे विषम कठिनाई भरे समय में कबीर दास जी का यह कहना कि'सांई इतना दीजिए जा में कुटुम समय' उनके द्वारा परमपिता से याचना है कि सांई कम से कम इतना तो दीजिए कि परिवार का गुज़र-बसर हो सके;मुझे और अधिक की कामना नहीं है ।
दूसरा यह कि-
सन्त कबीर दास जी समाज सुधारक और भक्त कवि थे, वे चाहते थे कि जीवकोपार्जन में ही अधिकाँश् समय लग जाएगा तो मेरा(हम सबका)सामाजिक उत्तरदायित्व कैसे पूरा होगा?समाज से जिन बुराइयों को दूर करना है वह कैसे और कौन करेगा?
इन पँक्तियों में दो संदेश छिपा हुआ है -
पहला यह कि हमें जीवकोपार्जन के लिए धन कमाने के बाद् प्रतिदिन कुछ समय सामाजिक दायित्वों या अपने परिवेश् के सुधार् तथा प्रगति के लिए लगाना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को जितना हो सके घंटा,दो घंटा या आधा घंटा सामाजिक मेलजोल बढ़ाने,सामाजिक या पारिवारिक दोषों जैसे-वर्त्मान में दहेजप्रथा,कन्याभ्रूण हत्या,भ्रष्टाचार,खर्चीली शादियां या अन्य रिवाज़ आदि को दूर करने के लिए भौतिक(शारीरिक) या मानसिक(वैचारिक) रूप से माहौल बनाने के लिए योगदान करना चाहिए ।

दूसरा संदेश जो कि आपके लिए अति महत्त्वपूर्ण होगा वह यह है कि कबीर दास जी हमें 'संतोष' का संदेश दे रहे हैं ,वे कहते हैं कि हमें जितना मिलता है उसी में संतोष करने आना चाहिए । इसका अर्थ यह नहीं है कि वे प्रगतिशील नहीं हैं; वे भौतिक उन्नति में बाधक भी नहीं हैं; वे केवल इतना कह रहे हैं कि आप संतोष करना सीखिए,क्यों? क्योंकि इच्छा का अन्त नहीं है । यदि आप मन को इच्छाहीन या कामना रहित नहीं रख पायेंगे तो ईश्वरीय संदेश आप तक कैसे पहुँच पाएगा?
कहा गया है-
'चाह गई चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह'
तथा-
गोधन,गजधन्,बाजिधन और रतनधन खान ।
जब आए संतोषधन सब धन धुरि समान ॥
अर्थात संतोष रूपी धन जीवन में उतर आने पर सब धन धूल के समान हो जाते हैं और मनुष्य वास्तविक सुख की अनुभूति कर पाता है ।
क्रमशः --------------

Friday, January 25, 2008

शक्ति के साधन (रहस्य)

आध्यात्मिकता का तीसरा मंत्र है-शक्ति संचय । निर्बलता एक बहुत बड़ा पातक है कमजोरी में एक ऐसा आकर्षण है कि उससे अनुचित लाभ उठाने की सबकी इच्छा हो जाती है ।
"दुर्बल मनुष्य निर्दयी हो जाते हैं - अपने प्रति,आश्रितों के प्रति और सबके प्रति ।"
शक्ति का प्रयोग रोकने के लिए शक्ति का प्रदर्शन जरुरी है । हम अपने शारीरिक बौद्धिक आत्मिक बल को इतना बढ़ा लें कि उसे देखते ही आक्रमणकारी के हौसले पस्त हो जाएँ ।

शक्ति के साधन
1.स्वास्थ्य-
शरीर और मन का अपने सुख स्वरूप में स्थित रहना ही स्वास्थ्य है । यह सब शक्तियों का मूल है,इसके बिना सभी शक्तियाँ निरर्थक हैं । अच्छा स्वास्थ्य तन ,मन और धन तीनों को साधने के लिए आवश्यक है । सादा जीवन,सीधा और सरल प्राकृतिक जीवन क्रम और संयम अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं ।

2.विद्या-
सांसारिक जानकारी शिक्षा है और मनुष्यता के कर्तव्य और उत्तरदायित्व को हृदयंगम करना विद्या है । ज्ञान साधना का प्रथम उपाय जिज्ञासा है । तर्क-वितर्क, चिन्तन-मनन,लगन और विवाद करने में रस आना ज्ञान प्राप्ति के आवश्यक शर्त् हैं ।
अपनी जानकारी की अल्पता को समझना और अधिक मात्रा में एवं वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की निरंतर चाह रखना व प्रयत्न करना मनुष्य को ज्ञानवान बनाता है ।

3.धन-
धन उपार्जन की अनेक प्रणालियों में से व्यापार,उत्पादन एवं निर्माण की प्रणाली सबसे उत्तम हैं । विश्वस्तता, मधुर व्यवहार. परिश्रम, ईमानदारी,अच्छी चीज़,वायदे की पाबन्दी,सजावट, विज्ञापन एवं मितव्ययिता के आधार पर हर व्यक्ति अपने व्यवसाय में वृद्धि कर सकता है।
धन को विवेकपूर्वक कमाने और विचारपूर्वक खर्च करने से वास्तविक लाभ प्राप्त किया जा सकता है ।

4.व्यवस्था-
जो व्यक्ति समुचित प्रबन्ध कर सकता है वह बहुत बड़ा जानकार है ।
" निरालस्यता, जागरुकता, स्वच्छता, नियमितता,समय की पाबन्दी, मर्यादा का ध्यान रखने से मनुष्य के विचार और कार्य व्यवस्थित होने लगते हैं और वह धीरे धीरे अपने क्षेत्र में एक कुशल व्यवस्थापक बन जाता है ।"

5.संगठन-
वर्तमान समय में संघ की शक्ति,संगठन,एकता को प्रधान शक्ति माना गया है ।
अच्छे मित्रों का, सच्चे मित्रों का समूह एक दूसरे की सहायता करता हुआ आश्चर्यजनक उन्नति कर जाता है । जिनके साथ दस आदमी हैं वह शक्तिशाली है । समानता के आधार पर परस्पर सहायता करनेवाला समूह बनाना चाहिए और उसे मजबूत करना चाहिए । आप सामूहिक प्रयत्नों में दिलचस्पी लीजिए । अपने जैसे विचारों वाले लोगों की एक मित्र मंडली बना लीजिए और खूब प्रेमभाव बढ़ाइए ।

6.यश-
जिसका यश है उसी का जीवन, जीवन है ।
जो व्यक्ति अपने अच्छे आचरण और अच्छे विचारों के कारण,सेवा,साहस,सच्चाई के कारण लोगों की श्रद्धा प्राप्त कर लेता है उसे बिना माँगे अनेक प्रकार के प्रकट और अप्रकट सहायता प्राप्त होती रहती है ।
"प्रतिष्ठा आत्मा को तृप्त करने वाली दैवी सम्पत्ति है ।" सुख्याति द्वारा जिनने दूसरों के हृदय को जीत लिया है इस संसार में यथार्थ में वे ही विजयी हैं ।

7. शौर्य या पराक्रम -
साहस बाजी मारता है तथा साहसी की ईश्वर सहायता करता है।
आपत्ति में विचलित नहीं होना,संकट के समय धैर्य रखना,विपत्ति के समय विवेक को कायम रखना मनुष्य की बहुत बड़ी विशेषता है । स्वाभिमान, धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए मनुष्य को बहादूर होना आवश्यक है ।

8.सत्य -
सत्य इतना मजबूत है कि इसे किसी भी हथियार से नष्ट नहीं किया जा सकता ।
'सत्य मेव जयते' का अर्थ ही है कि सत्य की ही विजय होती है झूठ की नहीं । कभी कभी असत्य की विजय होती हुई दिखाई देती है ऐसी स्थिति में सत्य कुछ समय के लिए आवरण में ढंका हुआ रहता है परन्तु जब सत्य प्रकट होता है तो असत्य और सत्य का भेद स्पष्ट हो जाता है ।
अध्यात्म का सार 'सत्य' है । संसार का कोई भी धर्म सत्य को नकार नहीं सकता । अध्यात्मविज्ञान का लक्ष्य सत्य का अन्वेषण है । सत्य ही ईश्वर है, प्रेम ही ईश्वर है । जिसके विचार और कार्य सच्चे हैं वह सं सार का सबसे बड़ा बलवान है उसे कोई नहीं हरा सकता; सत्यतापूर्ण हर एक कार्य के पीछे दैवी शक्ति होती है,उस पर चोट पहुँचानेवाले को स्वयं हि परास्त् होना पड़ता है ।
जो सत्यनिष्ठ है, मन, वचन और कर्म से सत्यपरायण रहते हैं उनके बल की किसी भी भौतिक बल से नहीं की जा सकती ।
सत्य परायण के मुँह से निकले वचन को प्रकृति स्वयं पूरा करती है ।

Wednesday, January 23, 2008

संत कबीर अमृत वाणी 02

श्री सद्गुरुवे नमः
मैं अपराधी जनम का नख शिख भरा विकार।
तुम दाता दुःख भंजना मेरी करो उबार॥
महानुभाव,
संध्या सुमरनी की ये पंक्तियाँ सन्त शिरोमणी कबीरदास जी की सबसे प्रभावशाली और मार्मिक पंक्तियों में से एक हैं ।
कबीर साहब निराकार ब्रम्ह की उपासना करते हुए कहते हुए अत्यन्त ही आर्त स्वर में मर्म की गहराइयों से उस परमसत्ता को पुकारते हैं । यह मनुष्य जन्म अनगिनत अपराधों से भरा हुआ है। ज़रा आप अपने मन में झंक कर तो देखिए कहीं किसी कोने में अपराधबोध दुबका हुआ तो नहीं बैठा है । हो सकता है न हो । अपराधबोध का न होना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है और यदि अपराधबोध है तो उसके उपचार या समाधान की आवश्यकता है ।
पुन्ः संत कबीर के शब्दों पर आइए॒
मैं अपराधी जनम का....कहने का क्या तात्प्र्य है? यहाँ कबीर साहब इस जीवन को पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम बता रहे हैं । आपने कभी यह कहावत सुनी होगी...जन्म,मृत्यु और विवाह ये तीनों प्रारब्ध के प्रतिफल हैं । तो प्रारब्ध क्या है? प्रारब्ध विस्तृत रूप में पूर्व जन्मों का संस्कार हैं ।मेरे मित्र यदि इसे संकुचित या छोटे रूप में देखें तो प्रारब्ध पूर्व कर्मों के फल का समूह है जो पूर्व जन्म को मानते हैं और जो पूर्व जन्म को नहीं मानते उनके लिए इसी जन्म में भूतकाल में किए कर्मों का समूह है ।
हमें इन पन्क्तियों के कहे जाने का अर्थ जानना आवश्यक है क्योंकि ये शब्द संध्या सुमरनी में हर रोज़ दुहराए जाते हैं । आज के इस वैज्ञानिक युग में प्रबुध्द वर्ग यह मान सकता है कि मैं अपराधी ...बार बार बोलने से इनका मनोवैज्ञानिक दुष्परिणाम तो उत्पन्न हो जाएगा ? परन्तु हमेम् और आरतियों में कुछ ऐसे ही भावों वाले शब्दों का अनवरत् प्रयोग चलते हुए मिल जाएंगे । इसका आशय यह हुआ कि सभी रचनाकार अपने आप को ईश्वर के समक्ष दीनता का बोध कराने के लिए इनका प्रयोग करते हैं ।हम उस परमसत्ता के आगे वास्तव में दीन हीन और दुर्बल ही हैं । यदि हम मन में ऎसा महसूस करते हैं तो ही उनकी कृपा का पात्र बन सकते हैं साथ ही अहंकार को त्यागने का भाव भी इन शब्दों में छुपा हुआ होता है ।
"नख शिख भरा विकार" कहने से अभिप्राय यह है कि हम भौतिक या मानसिक विकारों से भरे हुए हैं । काम,क्रोढ्,मद, लोभ,मोह, मत्सर रुपी मनोविकारों से भरे हुए हैंजो कि समय समय पर अपना दुश्प्रभाव दिखाते हैं । ये केवल दुष्परिणाम दिखाते हैं ऐसा नहींहै यदि इनका सही दिशा में चलायमान किया जाय तो असीम आनन्द का श्रोत बन जाते हैं।
यथा-काम केवल गृहस्थी में उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए उपयोग किया जाए तो असीम आनन्द का श्रोत है इसका असंयमित प्रयोग शारीरिक,मानसिक और नैतिक रुग्णता को जन्म देता है
यहाँ संयम की विशेषता को जानना ज्यादा लाभदायक है-"शक्ति के अपव्यय को रोकना ही संयम है।"
शक्ति यानि भारतीय दर्शन के अनुसार शक्ति के आठ स्तंभ हैं-1.स्वास्थ्य 2.विद्या 3.धन 4.व्यवस्था 5.संगठन 6.यश 7.शौर्य या पराक्रम 8.सत्य
इन आठों शक्ति के साधनों का संयमपूर्वक उपयोग करना चाहिए तभी इनका लाभ मिल सकता है दुरुपयोग होने पर हानि होना निश्चित है।मैं अगली क ड़ी में इनका विस्तृत वर्णन करुँगा जिसके अध्ययन से आपको निश्चित रूप से लाभ होगा ।
क्रोध-
क्रोध मानसिक कमजोरी का परिचायक है। इच्छा पूर्ति में अवरोध होने, इच्छा के विपरित कार्य होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। यह विवेक को नष्ट कर देता है,शरीर की बहुत सी ऊर्जा को भी नष्ट कर देता है। दुष्ट या दुष्टता के प्रति क्रोध शुभफलकारी माना गया है ।
मद-
घमंड,अहंकार हमारी उन्नति में बाधक है।जिस धन संपत्ति या गुण का अहंकार हम करते हैं वह धीरे धीरे हमारा साथ छोड़ने लगता है। शास्त्र में यहाँ तक कहा गया है कि ज्न्यान और भक्ति का अहंकार भी विपरित फल देनेवाला माना गया है। वास्तव में इस संसार में कुछ भी अहंकार करने योग्य नहीं है जैसे -धन ,सम्पत्ति,वैभव,सुन्द्रता,शारीरिक या आध्यात्मिक शक्ति सभी समय रूपी तलवर इन सबका नाश कर देता है।
मोह-
आसक्ति का ही दूसरा नाम मोह है । सन्तों ने संसार में रहते हुए सांसारिकता से निर्लिप्त् रहने का संदेश दिया है क्योंकि यह संसार अनित्य है और हम स्वयं मरणधर्मी हैं ।
इसलिए किसी के प्रति मोह करना या आसक्त रहना दुःख को आमंत्रित करना है। तो संसार में रहना कैसे है ठीक वैसे ही जैसे कमल कीचड़ के बीच् खिलता है परन्तु कीचड़ से निर्लिप्त रहता है । यहाँ 'प्रेम'मोह नहीं है, क्योंकि सांसारिक प्रेम ईश्वरीय प्रेम का सोपान बनता है।

मत्सर-
मत्सर या ईर्ष्या सर्वथा त्याज्य है । यह दूसरे की उपलब्धियों से अपनी तुलना करने पर उत्पन्न होता है। यह स्वयं का ही अधिक नुकशान करता है। यह हमारे मानसिकशक्ति और जीवनीशक्ति का नाश करता है।
पुनः सन्त् कबीर के संदेश पर विचार करते हैं कि हम इन मनोविकरों से भरे हुए हैंवे अपने दत अर्थात् सत्पुरुष स् कातर भाव से याचना करते हुए कहते हैं कि तुम ही मेरे दुःख का नाश करने वाले हो तुम्हारे बिना कौन मेरा उद्धार कर सकता है? सद्गुरु कबीर साहब उस निरंजन परमसत्ता से अपने आप को इन दोषों से दूर रखने की याचना कर रहे हैं।