Thursday, February 14, 2008

साख

दिया जिन्दगी ने झटका
उठा कलम और बस्ता
निकल पड़ा आशंका से
किसी अनहोनी की
गूँजती रही बिटिया के ससुर के
शब्द कर्कश कानों में
पिघला सीसा ऊँडेलती रही
ढुंढ रही थी नज़र
उस काल्पनिक कटोरे को।
जिन्दगी भर की कमाई
भरभराकर छितरा गई
दो बूँद अश्रु के छलक आए
बेबशी के मोटी ऐनक के पीछे ।
करने लगे अट्टहास
ईमानदारी पर,मेहनत पर
एक् बिटिया को भी
सुखी न कर सका
क्या यही है?
क्या यही है जिन्दगी भर की साख।
काश!
कुछ पीला काला किया होता,
किसी के बच्चों का निवाला छिना होता
किसी की बेबशी को बनाकर ढाल
समेटता,बटोरता कुछ माल
नहीं झेलता दंश होने का कँगाल
कर सकता बिटिया को खुशहाल।
सहसा,अन्दर किसी कोने से आई आवाज
नहीं! नहीं हो सकता
बद्दुआ की कीमत पर किसी की,
बनाना अपनी साख।

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