सांई इतना दीजिए,जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ,साधु न भूखा जाय ॥
मेरे प्रिय आत्मश्रेष्ठ,
सर्वप्रथम मैं इस घोर भौतिकवादी युग में,अतिप्रगतिशील समाज में जहाँ लक्ष्मी की शक्ति का सर्वत्र जय-जयकार हो रही हो एक अक्खड़ और फक्खड़ सन्त कबीर दास जी की इन संतोषवादी वाणियों पर दृष्टिपात करने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ । साथ ही आपको धन्यवाद देना चाहूँगा कि आपने जाने अनजाने एक ऐसे विचार तरंग (ब्लाॅग)को छेड़ा है जिसकी मधुर तान आप्के घर -गृहस्थी के कुशल निर्वहन के लिए आप्कि सहभागिता सर्वसरल शब्दो में तरंगित करेगी ।
आइए,मैं आप तक तृतीय पुष्प की सुगंध से आपके घर आँगन को महकाने की चेष्टा करूँ -
सांई इतना दीजिए,जा में कुटुम समाय ।
प्रायः 450 वर्ष पूर्व कबीर दास जी का यह कथन उस काल की अल्पभौतिकता को रेखाँकित करता है । उस काल में वैसे भी सामाजिक व्यवहार, गृहस्थि की व्यवस्था, बच्चों के पालन पोषण में अधिक धन की आवश्यकता नहीं थी । फिर भी सन्त कबीर दास जी के ऐसे उपदेश का अर्थ दो तरह का निकल सकता है पहला यह कि-
उस समय जीवन निर्वहन के साधन बड़ी मुश्किल से जुटते थे । शासक और शोषितों में भारी वर्गान्तर था । शोषित और गरीब लोगों की बड़ाई दुर्दशा थी;लोगों को दो वक्त की रोटी के लिए बहुत मशक्कत करना पड़ता था । ऐसे विषम कठिनाई भरे समय में कबीर दास जी का यह कहना कि'सांई इतना दीजिए जा में कुटुम समय' उनके द्वारा परमपिता से याचना है कि सांई कम से कम इतना तो दीजिए कि परिवार का गुज़र-बसर हो सके;मुझे और अधिक की कामना नहीं है ।
दूसरा यह कि-
सन्त कबीर दास जी समाज सुधारक और भक्त कवि थे, वे चाहते थे कि जीवकोपार्जन में ही अधिकाँश् समय लग जाएगा तो मेरा(हम सबका)सामाजिक उत्तरदायित्व कैसे पूरा होगा?समाज से जिन बुराइयों को दूर करना है वह कैसे और कौन करेगा?
इन पँक्तियों में दो संदेश छिपा हुआ है -
पहला यह कि हमें जीवकोपार्जन के लिए धन कमाने के बाद् प्रतिदिन कुछ समय सामाजिक दायित्वों या अपने परिवेश् के सुधार् तथा प्रगति के लिए लगाना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को जितना हो सके घंटा,दो घंटा या आधा घंटा सामाजिक मेलजोल बढ़ाने,सामाजिक या पारिवारिक दोषों जैसे-वर्त्मान में दहेजप्रथा,कन्याभ्रूण हत्या,भ्रष्टाचार,खर्चीली शादियां या अन्य रिवाज़ आदि को दूर करने के लिए भौतिक(शारीरिक) या मानसिक(वैचारिक) रूप से माहौल बनाने के लिए योगदान करना चाहिए ।
दूसरा संदेश जो कि आपके लिए अति महत्त्वपूर्ण होगा वह यह है कि कबीर दास जी हमें 'संतोष' का संदेश दे रहे हैं ,वे कहते हैं कि हमें जितना मिलता है उसी में संतोष करने आना चाहिए । इसका अर्थ यह नहीं है कि वे प्रगतिशील नहीं हैं; वे भौतिक उन्नति में बाधक भी नहीं हैं; वे केवल इतना कह रहे हैं कि आप संतोष करना सीखिए,क्यों? क्योंकि इच्छा का अन्त नहीं है । यदि आप मन को इच्छाहीन या कामना रहित नहीं रख पायेंगे तो ईश्वरीय संदेश आप तक कैसे पहुँच पाएगा?
कहा गया है-
'चाह गई चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह'
तथा-
गोधन,गजधन्,बाजिधन और रतनधन खान ।
जब आए संतोषधन सब धन धुरि समान ॥
अर्थात संतोष रूपी धन जीवन में उतर आने पर सब धन धूल के समान हो जाते हैं और मनुष्य वास्तविक सुख की अनुभूति कर पाता है ।
क्रमशः --------------
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1 comment:
प्रिय प्रकाश,
आपकी पोस्टें इस भागदौड़ भरे समय में दो मिनट ठहरकर सोचने के लिए बाध्य करती हैं। आज के चूहादौड़ में संतोषधन की याद दिलाने के लिए शुक्रिया। - आनंद
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